पटेल और इंदिरा: मोदी के अटपटे बोल

कैसा विचित्र संयोग है? देश के दो महान नेताओं के बड़े दिन एक ही तिथि पर पड़ते हैं। सरदार वल्लभ भाई पटेल का जन्म-दिन और इंदिरा गांधी की पुण्य-तिथि, दोनों 31 अक्तूबर को आते हैं। इस बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सरदार पटेल का जन्म-दिन बड़ी धूमधाम से मनाने की कोशिश की। उन्होंने बहुत अच्छा किया। सरदार पटेल का योगदान अविस्मरणीय है। यदि वे नहीं होते तो पता नहीं भारत भूमि पर कितने राज्य खड़े हो जाते? अभी भी भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश तो खड़े ही हैं। पटेल को जितना सम्मान मिलना चाहिए था, नहीं मिला, क्योंकि सत्तारुढ़ कांग्रेस नेहरुजी के महिमा-मंडन में ही डूबी रही। मोदी इस असंतुलन को यदि ठीक करना चाहते हैं तो मैं उसका स्वागत करुंगा।

लेकिन मेरी समझ में यह बात बिल्कुल नहीं आई कि पटेल को उठाने के लिए इंदिराजी को गिराने की जरुरत क्या है? यदि आप पटेल की मूर्ति पर जाते हैं तो इंदिराजी की समाधि पर भी जा सकते हैं। यदि आप थोड़ी उदारता बरतते तो क्या आप छोटे हो जाते? जहां राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और कांग्रेस के प्रमुख नेता उपस्थित हों, वहां आपकी अनुपस्थिति पूरे देश को खलती है। आप सरदार पटेल की भक्ति जिन गुणों के कारण करते हैं, इंदिरा गांधी उन्हीं गुणों का मूर्तिमंत रुप हैं। सरदार ने देश की छोटी-मोटी रियासतों को भारत में मिलाया तो इंदिरा गांधी ने बांग्लादेश खड़ा कर दिया, परमाणु-बम बनाया, खालिस्तान-नगालैंड जैसे पृथकतावादी आंदोलनों की फूंक निकाल दी, भारत को दक्षिण एशिया की महाशक्ति बना दिया। इंदिरा गांधी जैसा परम प्रतापी दूसरा प्रधानमंत्री कौन हुआ है? इस मामले में उन्होंने अपने पिता नेहरु को भी पीछे छोड़ दिया। यदि आज राष्ट्रवादी प्रधानमंत्रियों को याद किया जाए तो इंदिरा गांधी का नाम सबसे उपर होगा। अटलजी ने 1971 में उन्हें ‘दुर्गा’ यों ही नहीं कह दिया था।

यह ठीक है कि इंदिराजी ने आपात्काल थोपा, भ्रष्टाचार की अनदेखी की, कई लोकतांत्रिक मर्यादाओं का पालन नहीं किया लेकिन वर्तमान नेताओं द्वारा सिर्फ उनके ये दोष गिनाना ऐसा ही है, जैसे कोई छलनी छेद गिनाने लगे। इंदिरा गांधी ने भिण्डरावाले को मार गिराने के लिए स्वर्ण मंदिर पर जो हमला किया था, क्या उसे कोई भी राष्ट्रवादी गलत कह सकता है? उसी मुद्दे पर उनका बलिदान हुआ। उस बलिदान की उपेक्षा करना क्या किसी सच्चे राष्ट्रवादी को शोभा देता है? मोदी ने जिन शब्दों में इस घटना का वर्णन किया है, वह एक दुखद आश्चर्य है। उन्होंने कहा कि उस महान व्यक्ति (पटेल) की वर्षगांठ पर ही 30 साल पहले इस दुखद घटना का होना दुर्भाग्यपूर्ण है। इस दो अर्थोंवाले वाक्य का संदेश क्या है? इतना ही नहीं, सिखों की नृशंस हत्या पर गहन दुख व्यक्त करना बिल्कुल उचित और आवश्यक है लेकिन उसे भी मोदी ने जिन शब्दों में व्यक्त किया है, वे काफी अटपटे हैं।

मोदी का यह कहना भी तर्कहीन है कि पटेल के बिना गांधी वैसे ही अधूरे हैं, जैसे विवेकानंद के बिना रामकृष्ण परमहंस! विवेकानंद के बिना रामकृष्ण को कौन जानता लेकिन पटेल, नेहरु, विनोबा के बिना भी गांधी तो गांधी ही रहते। सरदार पटेल को जमकर उठाया जाए लेकिन उसके लिए गांधी, नेहरु, इंदिरा या सुभाष के साथ अन्याय करने का हमें कोई हक नहीं है।

Comment: