तुलसी की नारी ताडऩ की नही ”तारन” की अधिकारी है

तुलसी के राम बाल्मीकि के राम से कई रूपों में भिन्न हैं। ऐसा प्रक्षेपों के कारण तो हुआ ही है साथ ही अर्थ का अनर्थ कर देने से भी हुआ है। असंगत अर्थों को और अतार्किक बातों को हमने पत्थर की लकीर मान लिया और लकीर के फकीर बनकर उन असंगत अर्थों को तोता की तरह रटते जा रहे हैं। इससे मर्यादा पुरूषोत्तम रामचंद्र जी महाराज के महान व्यक्तित्व की कई स्थलों पर महिमा और गरिमा घटी है। लेकिन व्याख्याकारों को इससे क्या लेना देना है कि उनकी व्याख्या से किसी की महिमा घट रही है, उन्हें तो अपनी बात कहनी है-अब समाज पर उसकी जो प्रतिक्रिया हो वो होती रहे?
तुलसीदास जी और सूरदास जी का भारतीय संस्कृति की रक्षा में अनुपम योगदान है। इन दोनों महान कवियों ने राम और कृष्ण को उस समय भारतीय जनमानस में भगवान के रूप में स्थापित किया, जब ईसाई ईसा को और मुस्लिम मौहम्मद साहब को, महामानव के रूप में स्थापित कर रहे थे और हिंदुओं के समक्ष एक चुनौती पेश कर रहे थे कि तुम्हारे पास क्या है? तब युगीन आवश्यकता के रूप में इन दोनों कवियों ने राम और कृष्ण की स्तुति में ग्रंथ लिखे और चमत्कारों के नाम पर इन महापुरूर्षों के साथ कई अलौकिक बातें जोड़ दीं। बाद में कुछ और प्रक्षेप कर इन ग्रंथों को विकृत किया गया। अत: इन दोनों कवियों के कारण राम और कृष्ण तो पूज्यनीय हो गये लेकिन भारतीय धर्म का वैज्ञानिक स्वरूप गंदला हो गया। जरा देखें तुलसी पर आरोप है कि उन्हेांने नारी को ‘ताडऩ’ की अधिकारी कहा है। इस बात को कितने ही लोगों ने अपने अपने लेखों में उदृत किया है, और नारी जाति को पांव की जूती सिद्घ करने के लिए बार बार तुलसी को उदृत किया है। फलस्वरूप समाज में यह धारणा रूढ़ हो गयी कि तुलसी नारी जाति के शत्रु थे। सचमुच इस धारणा से नारी जाति पर कई प्रकार के अत्याचार बढ़े।
स्मरण रहे किसी कवि या लेखक का अपने ग्रंथ का कोई प्रतिपाद्य विषय अनिवार्यत: होता है। वह उस अपने प्रतिपाद्य विषय से अपने पाठकों को जितना बांधे रखेगा और जितनी युक्तियों का ढेर उस विषय की सिद्घि के लिए लगा देगा उतना ही वह अपने पाठकों के साथ और विषय के साथ न्याय करने में सफल होगा। यदि वह अपने प्रतिपाद्य विषय से भटकता है या पहले तो उसके पक्ष में तर्क देता है और बाद में अपने ही तर्कों का खण्डन करता है तो दो बातें हो सकती हैं-एक तो ये कि वह कवि अथवा लेखक कोई चिंतनशील व्यक्ति नही है, और दूसरे यह भी संभव है कि उसके ग्रंथ में किसी अन्य ने मिलावट कर दी है। विद्वान लोग प्रक्षेपों को इन्हीं युक्तियों के आधार पर ही पकड़ते हैं।
अब तुलसीदास जी की रामचरित मानस को आप लें, और देखें कि उन्होंने नारी जाति के लिए अन्यत्र भी ऐसी अशोभनीय धर्मविरूद्घ और नीति विरूद्घ बातें कही हैं या एक ही स्थान पर ऐसा कहा है? अन्य स्थानों पर हम देखते हैं कि तुलसीदास जी ने नारी को पुरूष की पूरक ही माना है। वेद के शब्दों में उसे पति की पोष्या ही स्वीकार किया है। उन्होंने युग धर्म (जमाने के दौर) के अनुसार पोष्या को दासी शब्द से बांधा है, लेकिन दासी का अर्थ कहीं भी पांव की जूती या ताडऩा की अधिकारी के रूप में प्रयुक्त नही हुआ है। भक्त भगवान का दास है तो उसका अभिप्राय ये नही है कि वह भगवान की ताडऩा अर्थात दण्ड का अधिकारी हो जाता है, बल्कि इसका अभिप्राय है कि वह ईश्वर की करूणा का, तारन का, त्राण का अधिकारी हो गया है, ऐसा माना जाता है। तुलसीदास जी ने भी ढोल, गंवार, शूद्र, पशु और नारी को तारन का अधिकारी कहा है। ताडऩ शब्द तारन के स्थान पर प्रक्षिप्त हो गया है। वैसे भी हिंदी की ‘र’ ‘ड़’ में और ‘ड़’ ‘र’ में स्थान-2 पर परिवर्तित हो जाती है।
अब हम इस विषय में थोड़ा रामचरित मानस में तुलसीदास जी के नारी जाति के प्रति दृष्टि कोण पर विचार करते हैं।
बालकाण्ड (121) में श्रीराम के जन्म लेने के कारणों पर प्रकाश डालते हुए तुलसीदास कहते हैं कि श्रीराम असुरों को मारकर देवताओं को राज्य देते हैं और अपनी बांधी हुए वेद मर्यादा की रक्षा करते हैं।
यहां पर ध्यान देने की बात यह है कि राम वेद मर्यादा का निरूपण करते हैं, अत: राम वेद मर्यादा के रक्षक सिद्घ हुए। वेद पत्नी की मर्यादा का निरूपण करते हुए स्पष्ट करता है:-
त्वं सम्राज्ञयेधि पत्युरस्तं परेत्य (अथर्व 14/1/43) अर्थात पति के घर जाकर पत्नी घर की महारानी हो जाती है। पत्नी को गृहस्वामिनी कहने की परंपरा भारत में आज तक है। ये परंपरा वेद की ही देन है। करोड़ों वर्ष से हम इस व्यवस्था में जी रहे हैं और इसे ही मान रहे हैं। पत्नी को देहात में घरवाली भी कहा जाता है, उस शब्द का अर्थ भी गृहस्वामिनी ही मानना और जानना अभिप्रेत है। अथर्ववेद (अथर्व 14/1/27) में पति को पत्नी की कमाई खाने से निषिद्घ किया गया है। अत: वेद का निर्देश है कि पति ही पत्नी का पोषण करेगा। वह उसकी कमाई नही खाएगा। यदि तुलसी के राम इसी मर्यादा के रक्षक हैं तो उनके लिए नारी ‘तारन’ की अधिकारिणी ही सिद्घ होती है।
राम अहिल्या के तारक हैं ताड़क नही
दशरथनंदन श्रीराम के साथ अहिल्या का जो प्रसंग जोड़ा गया है, यदि उसे सर्वथा उसी रूप में सत्य मान लिया जाए जिस रूप में उसका उल्लेख किया गया है तो भी राम नारी के तारक अर्थात उद्घारक ही सिद्घ हुए। तुलसी का अभिप्राय भी अपने चरितनायक से नारी की ताडऩा कराना नही अपितु तारना कराना ही सिद्घ होता है। अहिल्या राम से कहती है:-
मैं नारि अपावन प्रभु जग पावन रावन रिपु जन सुखदाई।
राजीव बिलोचन भव भय मोचन पाहि पाहि सरनाहि आई।
अर्थात-मैं अपवित्र स्त्री हूं और आप जगत को पवित्र करने वाले, रावण के शुत्र और भक्तों को सुख देने वाले हैं। हे कमल नयन! हे संसार के दुख करने वाले, मैं आपकी शरण में हूं मेरी रक्षा कीजिए।
तुलसी की अहिल्या प्रभु राम से रक्षा (तारना, त्राण, कल्याण) मांग रही है और प्रभु राम उसे वही दे रहे हैं। राम ने अहिल्या की ताडऩा नही की, अपितु उसकी तारना की और वह त्राण पाकर सकुशल पतिलोक को चली गयी। तुलसीदास ने वेद की मर्यादा के अनुसार यहां भी नारी जाति के प्रति राम का और अपना सही दृष्टिकोण ही प्रदर्शित किया है।
नारियों के समान अधिकार थे
रामचरितमानस के अनुसार भी रामायण काल में स्त्रियों को पुरूष के समान ही अधिकार प्राप्त थे। जब जनक जी के यहां से दशरथ सुकुमारों के विवाह की पत्रिका (चिट्ठी) आती है तो राजा दशरथ के लिए रामचरितमानस में आया है-
‘राजा सबु रनिवास बोलाई
जनक पत्रिका बांचि सुनाई।’
अर्थात राजा दशरथ ने सारे रनिवास को बुलाया और जनक जी की विवाह पत्रिका को पढ़कर सबको सुनाया। यदि नारी के प्रति उपेक्षात्मक, उत्पीडऩात्मक और दमनात्मक दृष्टिकोण उस समय के पुरूष का होता तो राजा कदापि रनिवास को बुलाकर विवाह पत्रिका नही सुनाते। लेकिन इतने शुभ मुहूर्त के समय राजा ने रनिवास को पूर्ण सम्मान देकर वेद की विवाह मर्यादा का पालन किया। नारी के प्रति अपने सहज दायित्व का निर्वाह राजा ने किया। रानियों ने विवाह पत्रिका को सुनकर बड़ी प्रसन्नता व्यक्त की।
वेद विधान से विवाह संपन्न हुआ था
राम और सीता के स्वयंवर के विषय में तुलसीदास जी ने कहा है कि–
करि लोक बेद विधानु कन्या दानु नृत्य भूषन कियो। अर्थात राजा जनक ने लोक और वेद की विधि से कन्यादान किया।
इसका अभिप्राय है रामचंद्र के विवाह संस्कार के समय वेद के पंडितों ने वेद मंत्रोच्चार करते हुए ही सारा संस्कार संपन्न कराया था। अत: दोनों के लिए ये मंत्र अवश्य आया हेागा—
ओं गृभ्णामिते सौभगत्वाय हस्तं मया यत्या जर दृष्टिर्यथास: भगो अर्यमा सविता पुरन्धिर्महयंत्वादुर्गाई पत्याय देवा:।। (ऋ 10/85/36)
इसका अभिप्राय है कि हे वरानने! ऐश्वर्य तथा सुसंतान आदि सौभाग्य की वृद्घि के लिए मैं तेरे हाथ को ग्रहण करती/करती हूं, तू मेरे साथ वृद्घावस्थापर्यन्त सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर।
तुलसीदास जी ने यहां वेद विधि का उल्लेख कर स्पष्ट कर दिया है कि वैदिक व्यवस्था के अंर्तगत पाणि (हाथ) ग्रहण की जो विधि है, उसको यहां भली भांति पूर्ण किया गया। पाणिग्रहण के समय पति पत्नी एक दूसरे को अपना हृदय सौंपते हैं अथवा एक दूसरे को अपने हृदय मंदिर में प्रेम के देवता के रूप में स्थान देते हैं, एक ऐसा देवता जो सृजन का प्रतीक बनेगा और सुसंतान को देकर वंश की वृद्घि में सहायक बनेगा।
विवाह से बनते हैं हम श्री और श्रीमती
विवाह के समय एक दूसरे को हृदय सौंपने की जो परंपरा पति-पत्नी के लिए हमारे यहां है वही उन्हें विवाह के बाद से श्री और श्रीमति बनाती है। श्री उस लक्ष्मी को कहते हैं जो लोकोपकार के लिए काम आती है। लेकिन यहां श्री के कुछ और अर्थ भी हैं। यथा श्री आश्रय के लिए भी कहा जाता है। आज एक दूसरे को हृदय मंदिर में आश्रय देने से ही ये दोनेां वर-वधू श्री और श्रीमति बनते हैं, अब से आगे इनके हृदय में उभर रहे प्रेम के कारण इनके हाथ इतने फैलते चले जाएं कि समस्त वसुधा ही उसमें समा जाए, तभी बनेगा-वसुधैव कुटुम्बकम्। हाथ दान के लिए अर्थात लोकोपकार के लिए भी फैलते हैं और प्रेम के विस्तार के लिए भी फेेलते हैं। दोनों अर्थों से विश्व का कल्याण ही होता है। प्रेम के विस्तार से कृण्वंतो विश्वमाय्र्यम् के आदर्श का विस्तार होता है, इस प्रकार श्री और श्रीमती शब्दों के गूढ़ अर्थ हैं। इन दोनों में भारतीय संस्कृति का निचोड़ (वसुधैव कुटुम्बकम् और कृण्वन्तो विश्वमाय्र्यम्) निहित है।
क्या ताडऩा से यह आदर्श स्थापित हो सकता है?
रामचंद्र जी का व्याख्यान
जनक दुलारी सीताजी और उनकी अन्य बहनों के विवाह संस्कार के उपरांत रामचंद्र जी उन्हें आश्वस्त करते हुए कहते हैं–
ते तुम सबैप्रेम की मूरति सूरति की बलिहारी।
सिद्घि आदि सब राजकुमारी मोहि प्राणहुं ते प्यारी।।
तुम सब प्रेम की मूरति हो। तुम्हारी सूरत पर बलिहारी। सिद्घि और तुम सब राजकुमारी मुझे प्राणों से भी अधिक प्यारी हो।
वह आगे कहते हैं-हे प्यारी! तुम्हारे मन में जो अभिलाषा है सो सब मैं आज पूरी करूंगा। हे लाडली! लोक की लाज बचाकर मैं तुमसे अलग नही रहूंगा।
हे सांवरी! हम सब प्रकार से तुम्हारे हैं और तुम हमारी हो। हे कुमारी! हमारा वचन सत्य मानो।
तुलसी के राम के इन शब्दों में कहीं ताडऩा नही है। हां, तारना अवश्य झलकती है।
सीताजी की माता ने कहा-
विवाह के उपरांत जब दशरथ नंदन अपने परिजनों और प्रियजनों के साथ अयोध्या लौटने लगे तो सीता जी की माता ने कहा था-
‘परिवार पुरजन मोहि राजहिं प्रानप्रिय सिय जानिबी’ अर्थात-यह सीता कुटुम्बियों को, नगर वासियों को, मुझको और राजा को प्राणों के समान प्यारी है, ऐसा जानना। इसके शील और स्नेह को समझकर इसे अपनी दासी करके रखना।
यहां भी दासी का अर्थ भक्त और भगवान के मध्य तारणहारी प्रीति से ही निकालना अपेक्षित है। क्योंकि जिस प्रेमपूर्ण परिवेश में सारा संस्कार पूर्ण हुआ उसमें कोई माता दासी भाव को इस अर्थ में नही कह सकती कि इसे (मेरी बेटी को) जैसे चाहो वैसे मारना पीटना या लताडऩा।
दशरथ ने क्या कहा-
श्रीराम जब जानकी के साथ अपने घर पहुंच जाते हैं तो सायंकाल को दशरथ ने रानियों से कहा-
‘बधू लरिकनी पर घर आई
राखेऊ नयन पलक की नाईं।।
अर्थात ये बहुएं अभी लड़कियां हैं, पराये घर आयी हैं, इनको नेत्र और पलकों की भांति रखना।
यहां दशरथ बड़ी व्यावहारिक बात कह रहे हैं। सामान्यत: सास अपनी बहू को लड़की ना समझकर प्रौढ़ महिला मान लेती हैं और इसी कारण बहू के प्रति उनका दृष्टिकोण कई बार प्रारंभ से तारना का न होकर ताडऩा का हो जाता है। राजा दशरथ इसीलिए रानियों को समझा रहे हैं, कि बहुओं को अपनी लड़की मानना और उनके प्रति अपना व्यवहार कृपापूर्ण अर्थात तारने वाला ही रखना। इतना कृपा पूर्ण कि आंखों में बसा लेना।
सुमित्रा ने क्या कहा
जब राम वन को जाने लगे तो माता सुमित्रा ने अपने पुत्र लक्ष्मण से कहा-
तात तुम्हारी मातु वैदेही,
पिता रामु सब भांति सनेही।
अर्थात हे पुत्र! जानकी जी तुम्हारी माता हैं और सब भांति से स्नेह करने वाले राम तुम्हारे पिता हैं।
तनिक हम विचार करें कि एक नारी दूसरी नारी को (भाभी होते हुए) अपने पुत्र से मातृवत सम्मान दिलाने की बात कह रही है। सम्मान भी राम से पहले, इसका अर्थ स्पष्ट है कि नारी के प्रति तुलसी के हृदय में कितना सम्मान था। माता सुमित्रा यहीं अपने पुत्र को शिक्षा देते हुए कहती है कि गुरू, माता, पिता, भाई, देवता और स्वामी इन सबकी प्राणों के समान सेवा करनी चाहिए।
भारतीय संस्कृति तो मानती ही ये है कि मातृदेवो भव:-अर्थात माता देवी होती हैं। यत्र नार्यंस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता….। ”इस आदर्श को सामने रखकर जब नारी के प्रति सम्मान व्यक्त किया जा रहा हो तो उसको सदा दण्डित करते रहने की बात सोचना कितना अतार्किक और अक्षम्य है।
राम का विलाप-
सियाहरण के पश्चात तुलसीदास ने अपने प्रभु की जो दशा दिखाई है वह भी विचारणीय है, क्योंकि उस दशा को देखकर भी लगता है कि तुलसी नारी के प्रति कितने सहज हैं। राम कहते हैं-
हे खग, मृग हे मधुकर श्रेनी।
तुम देखी सीता मृगनैनी।।
हे मृगो! हे भौंरो की पांति तुमने कहीं मृगनयनी सीता देखी है?
यदि नारी केवल पांव की जूती होती, और तुलसी उसे केवल ताडऩ की पात्र मानते तो अपने प्रभु राम के मुखारबिंदु से ऐसे शब्द कदापि नही कहलाते। उन्होंने राम से ये शब्द कहलाकर नारी जाति के प्रति पुरूष समाज का असीम स्नेह और दायित्व बोध दर्शाया है। उन्होंने राम से यह नही कहलवाया कि सीता तो पांव की जूती थी खो गयी तो क्या हो गया, दूसरी पहन लेंगे?
हनुमानजी का उदाहरण
सुंदरकाण्ड में हनुमान जी सीता को प्रभु राम के विषय में जो बताते हैं कि वह भी ध्यातव्य है। उन्होंने अशोक वाटिका में बैठी सीता को बताया था-श्रीराम जी ने कहा है कि हे सीते! तुम्हारे वियोग में मुझे सब वस्तुएं विपरीत हो गयीं हैं। नये पत्ते अग्नि के समान, रात्रिकाल के समान और चंद्रमा सूर्य के समान हैं और कमलवन भालों के समान हो गया है। बादल मानो गरम तेल बरसाते हैं। जो हितैषी थे वही पीड़ा देने वाले हो गये हैं। वायु सांप की फुंकार के समान हो गयी है। कहने से दु:ख कम नही होता है, पर किससे कहूं? यह दुख कोई नही जान सकता। मेरे और तुम्हारे प्रेम का तत्व केवल एक मेरा मन ही जानता है।
हनुमान जी का राम जी की ओर से माता सीता से यह उपरोक्त कथन केवल कथन नही है। इसमें राम की एक नारी के प्रति प्रेम पीड़ा छिपी है। उस नारी के प्रति जिसे वह अपने हृदय में स्थान देकर श्रीमान बने थे, आज उनकी हृदय मारे पीड़ा के कराह रहा है। क्योंकि जिसे हृदय में स्थान दिया था वही आज उनके पास नही थी। फेरों की रस्म उनके लिए केवल रस्म नही थी, अपितु एक मर्यादा थी और मर्यादा की रक्षार्थ वह अत्यंत व्याकुल थे। उनके लिए विवाह एक संविदा नही था अपितु एक पवित्र संस्कार था, जिसे वह जन्म जन्म का साथ मानते थे। भारतीय संस्कृति इसी संस्कार से निर्मित हुई है। इसलिए इस संस्कार से विपरीत अर्थ निकालना अनुचित होगा। इन सबसे यही सिद्घ होता है कि तुलसीदास का प्रतिपाद्य विषय नारी के नारीत्व की रक्षा करना है, ना कि उसे अपमानित करना। किसी शब्द के प्रक्षेप ने उनकी भावनात्मक मनोदशा का सत्यानाश कर दिया है। जिसे ठीक किया जाना उचित होगा।
किस प्रसंग में कहा है ताडऩ शब्द?
जब रामचंद्र जी लंका पर चढ़ाई करने जाते हैं तो कहा जाता है कि समुद्र उन्हें रास्ता नही दे रहा था, (वास्तव में समुद्र का अर्थ यहां किसी ठेकेदार अर्थात निविदाकार से लेना चाहिए, जिसके क्षेत्राधिकार में संबंधित समुद्री क्षेत्र आता होगा। उसके छोटे छोटे कर्मचारी राम को निकलने नही दे रहे होंगे, लेकिन जब राम ने लक्ष्मण से बाण संभालने की बात कही तो उन लोगों में हड़कंप मच गया और तब उनका उच्चाधिकारी अर्थात निविदाकार वहां पहुंचा होगा) तो तब उस निविदाकार ने प्रभु राम को मनाने का अनुरोध किया। तब उस निविदाकार रूपी समुद्र ने राम से याचना करते हुए कहा कि आप मेरे सब अपराध क्षमा करें।
यहां समुद्र स्वयं को जड़ बता रहा है और कह रहा है कि इस समय आप अपने कोप को शांत करें। मेरे लोगों से जो अपराध हो गया है उसे क्षमा करें। तब वह कहता है-
ढोल, गंवार सूद्र पसु नारी।
सकल ताडऩा के अधिकारी।।
अर्थात हे राम! ढोल अपनी कसैली आवाज से लोगों को परेशान करता है लेकिन उस पर कोप इसलिए नही किया जाता क्योंकि वह एक जड़ वस्तु है, इसलिए मुझपर भी कोप मत करो। जड़ वस्तु पर कोप करना नीति विरूद्घ है, इसलिए समुद्र जैसी जड़ वस्तु पर कोप करते हुए इसे एक ही बाण से सुखाने की बात मत करो, क्योंकि इससे अनेकों जीवों का विनाश हो जाएगा। इससे पहली चौपाई में समुद्र जड़ वस्तुओं पर क्रोध न करने की बात कह रहा है, और अगली चौपाई में जड़ वस्तु को वह प्रचलित अर्थ के अनुसार दंडित करने की बात कहने लगे तो यह बात जंचती नहीं।
मेरे लोगों से मूर्खता वश, गंवारूपन से अपराध हो गया है, जिस कारण उन्होंने आपको निकलने का मार्ग नही दिया। उन्हें आपकी शक्ति का अनुमान नही था, इसलिए उन्होंने अपने गंवार होने का परिचय दिया है। उनसे अनजाने में गलती हुई है इसलिए उन्हें क्षमा करें। अत: उन्हें मूर्ख, शूद्र और नारी के समान अपनी कृपा का पात्र बनाओ अर्थात उनके अपराध पर अधिक ध्यान उसी प्रकार मत दो जिस प्रकार शूद्र, पशु और नारी की किसी गलती पर नही दिया जाता है।
नारी अबला होने के कारण दंड की अधिकारिणी नही है। क्योंकि पौरूष बराबर के बलशाली व्यक्ति से लडऩे में ही दिखाया जाता है। हमारे यहां धनुर्धारी धनुर्धारी से और तलवार वाला तलवार से ही लड़ता था। महाभारत में भी ऐसा ही हुआ था। यह युद्घ का एक नियम था। नारी का सहज स्वभाव है, इसलिए वह युद्घ से दूर रहती है। अत: उसे दण्ड का पात्र नही माना गया है।
यदि हम इस चौपाई के प्रचलित अर्थ पर ध्यान दें तो पता चलता है कि ढोल, गंवार, शूद्र पशु और नारी तो दण्ड के ही पात्र हैं, इसलिए समुद्र अपने अपराध की क्षमा न मांग कर बल्कि स्वयं को और दण्डित करने के लिए कह रहा है। यह अर्थ प्रसंग के विरूद्घ है, तर्क के विरूद्घ है और भारतीय न्याय व्यवस्था के भी विरूद्घ है, साथ ही प्राकृतिक न्याय के भी विरूद्घ है। प्रसंग क्षमा याचना का है इसलिए क्रोध को शांत कराना याचक का ध्येय है ना कि क्रोधाग्नि को और प्रज्ज्वलित करना। इसलिए याचना को हम एक याचना ही रहने दें, ना कि उसे राम के लिए एक चुनौती बनायें।
स्वयं राम ने भी इस याचना को स्वीकार किया। यदि यहां समुद्र नारी को ताडऩा की अधिकारी कहता तो राम जैसा नीति मर्मज्ञ मर्यादा पुरूषोत्तम उसका उसी समय नीति संगत विरोध करता। इसलिए यही उचित है कि समुद्र ने ताडऩा की बात न कहकर तारना की बात कही। तुलसीदास जी का भाव भी यही है, लेकिन हमने ही तारना के स्थान पर ताडऩा शब्द प्रयुक्त कर लिया। जिसमें कुछ स्वार्थी लोगों की और संस्कृति नाशकों की सोच भी हो सकती है, या प्रमाद भी हो सकता है।
परंपरागत लोक न्याय क्या कहता है?
जब भारत की संस्कृति की वास्तविकता को समझने का कहीं प्रश्न आ उपस्थित हो तो हमें कथित बुद्घिजीवियों की अपनी संस्कृति संबंधी व्याख्याओं और धारणाओं की ओर ध्यान नही देना चाहिए। क्योंकि इनकी बातें उन पश्चिमी विद्वानों की थाली का उच्छिष्टï भोजन होता है जिन्होंने भारतीयता को आंशिक रूप से भी नही समझा और इसके विषय में उल्टा सीधा लिख दिया। उन्होंने भारत के वेदों को ग्वालों के गीत माना और हमारे विद्वानों ने उसका प्रचार किया। इसलिए भारत के अतीत को इन्होंने अंधकारमय माना। अत: ऐसी परिस्थितियों में हमें भारत की लोक मान्यताओं का परीक्षण, समीक्षण और निरीक्षण करना चाहिए। नारी के विषय में अब भी गांव देहात की स्थिति क्या है? इसका उत्तर यही है कि भारत के गांव देहात में नारी को आज भी अबला माना जाता है, और दो पक्षों की लड़ाई झगड़े में महिलाओं पर कोई पक्ष आज भी हाथ नही चलाता। यदि झगड़े में पिटते किसी पक्ष की ओर से महिलाएं आगे आ जाएं या पिटते हुए व्यक्ति के ऊपर महिला उसे बचाने के लिए लेट जाए तो दूसरा पक्ष लाठी चलानी बंद कर देता है। हमारे यहां युद्घ का यह एक नियम है, जो लाखों करोड़ों वर्षों से चला आ रहा है। लोक का यह न्याय नियम हमें बताता है कि महिला तारन की अधिकारी है। उस पर करूणा करनी चाहिए। यदि कोई मूर्ख किसी को गाली दे दे तो लोग कहते हैं कि इसके मुंह मत लगो यह तो मूर्ख है अर्थात मूर्ख होने के कारण इसे छोड़ दो, इस पर उपकार करके इसे प्राणदान दे दो। इसी प्रकार शूद्र-सेवक को अज्ञानी मानकर तथा पशु को पशु मानकर छोड़ा जाता है। भारतीय संस्कृति की यह मूल धारणा है, यद्यपि अपवाद स्वरूप इन पर कहीं कहीं अन्याय भी हुआ है। लेकिन भारत की मूल परंपरा ने उस अन्याय को अपनी स्वीकृति प्रदान नही की और ऐसे अन्यायी को सदा अन्यायी ही माना गया। ताडऩा उसकी होती है जो जानकर भी नही मानता पर गंवार शूद्र और पशु कुछ जानते नही हैं इसलिए उन्हें क्या दण्ड देना? यही प्राकृतिक न्याय है। हम अपनी संस्कृति के प्रति छायी हुई गंद को छांटने का प्रयास करें। तभी हम भारत को पुन: विश्वगुरू बना पाएंगे। तुलसी के सही मंतव्य और विचार को समझें और अपनी संस्कृति की पावनता को प्रखर करें। आज हमारा यही धर्मघोष और जयघोष होना चाहिए, संस्कृति की रक्षा प्रत्येक व्यक्ति का महत्वपूर्ण दायित्व है।

Comment: