लीबिया को अपने क्रूर शासन से चालीस वर्ष तक पददलित करने वाले तानाशाह कर्नल मुअम्मर गद्दफी के अंत होने पर जो खुशियां मनायी गयीं उनसे स्पष्ट हो गया कि जनता इस तानाशाह के साथ कतई नहीं थी।

जीवन का सबसे बड़ा रहस्य और सबसे बड़ा सच मौत है। हर व्यक्ति मौत को मात देना चाहता है पर हर योद्धा मौत से मात खाकर ही जाता है। दुःख की बात ये है कि अपनी मौत को देखने के बाद वह खुद नहीं रहता अन्यथा मौत का अनुभव उससे पूछा जा सकता है कि सारे जीवन जिसे मात देने की तैयारी करता रहा, बड़ी-बड़ी योजनाएं बनाता रहाऋ अब जब उसने ही तुझे मात दे दी है तो कैसा लग रहा है?

मनुष्य में राक्षस वृत्ति भी होती है और देवता वृत्ति भी होती है। राक्षसों की कोई अलग योनि नहीं होती। राक्षस भी हम ही होते हैं और देवता भी हम ही होते हैं। जब हम काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ, ईष्र्या और घृणा-द्वेष में से किसी एक के भी चंगुल में फंस जाते हैं तो हम अपने आपे में स्थित नहीं होते। हम तब असहज होते हैं। इसे ही हम अस्वस्थ ;अपने आप में स्थित न होना अर्थात अ़स्व़स्थद्ध होना कहते हैं। रक्षस का अर्थ है- रक्ष सः राक्षसः, अर्थात जिससे रक्षा की जाये वह राक्षस है। क्रोध से हमें अपनी रक्षा करनी चाहिए इसलिए क्रोध एक राक्षस है। हमारा एक शत्रु है। यदि आप उससे अपनी रक्षा नहीं करेंगे तो वह आपको मार डालेगा। इसी प्रकार अन्य विकारों के विषय में सोचना चाहिए।

रावण विद्वान होकर भी अहंकारी था। परिणाम क्या निकाला यही कि वह स्वयं को इतिहास में राक्षस लिखा गया। उसका ज्ञान निरर्थक रहा। अपने ज्ञान के माध्यम से देवताओं की श्रेणी के महामानवों की जिस ऊंचाई पर वह पहुंच सकता था उस पर पहुंचने से उसके भीतर बैठे एक राक्षस ने उसे रोक लिया। जिसका नाम था अहंकार। संसार में हम जैसे अधिकांश लोगों के साथ यही होता है। करोड़ों लोग आज काम नाम के राक्षस के मारे फिंर रहे हैं तो करोड़ों क्रोध के, करोड़ों अहंकार के, मद के, लोभ के, मोह के या ईर्ष्या आदि के मारे फिर रहे हैं। इसीलिए सबके भीतर एक अदृश्य आग लग रही है। जिसे सब अनुभव तो कर रहे हैं पर वह लगी कैसे या लगाई किसने, यह जानने का प्रयास नहीं करते। अक्सर उस आग के लिए हम दोषी अपने पड़ोसी को, भाई को, मित्र को, पत्नी को, पुत्रा को, संबंधियों को तथा दुनिया के प्राणियों को मानते हैं। स्वयं को दोषी मानने की प्रवृत्ति हमारे भीतर है ही नहीं। इसलिए हमारे जीवन निरर्थक हैं। वे लोकोपकार के लिए नहीं है। यहां तक कि स्वयं का उपकार भी हम नहीं कर पा रहे हैं। गद्दाफी जैसे लोग उन करोड़ों लोगों के प्रतिनिधि होते हैं जो काम, क्रोध, अहंकार नाम के राक्षसों के शिकार हैं। इसलिए एक गद्दाफी तो मारा गया पर हममें उसी दुर्गुण के शिकार कितने ही गद्दाफी छिपे पड़े हैं। इसलिए हम में से भविष्य में गद्दाफी का उत्तराधिकारी कब कौन बन जाये, यह भी पता नहीं। एक बुरे आदमी का ही तो अंत हुआ है। बुराई का नहीं हुआ।

बुरा आदमी एक शरीर था। जबकि बुराई उसकी आत्मा के आलोक को अंधकार से पाट देने के एक शाश्वत संघर्ष का नाम है। जिस पर अच्छाई आलोक का साम्राज्य स्थापित करना चाहती है। इसलिए यह मानना पड़ेगा कि अब भी हमने एक तानाशाह का ही अंत किया है। व्यक्ति की झूठी महत्वाकांक्षाओं के संघर्ष से जन्म लेने भविष्य के किसी तानाशाह की संभावनाओं को क्षीण नहीं किया है। जो लोग कल गद्दाफी के साथ बैठने पर गर्व किया करते थे आज उन्हें शर्म आ रही है। कल जो उन्हें अपना बताया करते थे आज वही कह रहे हैं कि मेरा उससे कोई वास्ता सरोकार नहीं था। गर्व करने वाले लोग व्यक्ति के जाने के बाद यदि शर्म अनुभव करने लगें तो समझना चाहिए कि जीवन चाहे जितनी तड़क-भड़क का रहा हो पर यदि लोगों को बाद में शर्म दिलाने का कारण बन गया तो वह जीवन अर्थहीन ही रहा। गद्दाफी की 350 अरब रुपये की अकूत धन संपदा भी आज मिट्टी ही बन गयी है। वह राष्ट्र की संपत्तिं थी और वहीं चली गई है। वह व्यक्ति जीते जी जितनी सम्पति का उपभोग कर सकता था उतनी का कर गया। अंत समय में उस सम्पत्ति ने उसके साथ जाने से मना कर दिया। गद्दाफी को इस बात का ज्ञान जीवन में नहीं हो पाया। इसलिए उसकी मृत्यु भी अर्थहीन हो रही है।

शायद गद्दाफी जैसे लोगों के लिए ही कवि ने लिखा है-

जिनके महलों के कभी हजारों रंग के फानूस थे,

झाड़, उनकी कब्र पे हैं, इसके सिवा कुछ भी नहीं,

गूंजते थे जिनके डंके से जमीं और आसमां,

चुप पड़े हैं कब्र में हूं ना हां कुछ भी नहीं।।

शमशान की शांति को कभी शांति नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार केवल उपद्रवों का नाम जिंदगी नहीं है। जिंदगी शुभकर्मों के सतत प्रवाह का नाम है। क्योंकी शुभकर्मों का प्रवाह ही आने वाली पीढि़यों के लिए हमारी जिंदगी को उनके लिए एक महकता फूल बना सकता है। जिंदगी में फूल बोने की बजाय यदि शूल बोओगे तो जिंदगी कांटों भरी लेकिन अर्थहीन हो जायेगी। गद्दाफी की जिंदगी शूल बोकर गयी है इसलिए वह निरर्थक ही रही।

 

 

 

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