महारानी संयोगिता व हजारों बलिदानियों के बलिदान का स्मारक-लालकिला

44227_New Delhi_Red Fort (Lal Qila)_d804-31राकेश कुमार आर्य
सज्जन और सप्तपदी
कहा जाता है कि ”सतां सप्तपदी मैत्री” अर्थात सज्जनों में सात पद चलते ही मैत्री हो जाती है। ये सात पद मानो सात लोक हैं, प्रत्येक पद से एक लोक की यात्रा हो जाती है। अत: सात पद किसी के साथ चलने का अर्थ है कि मैंने आपकी मित्रता स्वीकार की। भारतीय संस्कृति के इस मूल्य के दर्शन हमें भारतीय समाज में प्रचलित लोक व्यवहार में भी होते हंै। जैसे आप अपने किसी आगंतुक के स्वागत सत्कार के लिए उसे देखते ही दौड़ पड़ते हैं, वैसे ही उसे अपने यहां से विदा करते समय भी आप उसके साथ कुछ पद रखते हैं। इसी प्रकार वर-वधू के विवाह संस्कार के समय सप्तपद साथ-साथ चलाया जाता है। उसका अभिप्राय है कि सातों लोकों में अब तुम्हें साथ-साथ चलना है क्योंकि आज से तुम दोनों ने एक दूसरे की मित्रता स्वीकार कर ली है। मित्रता के लिए दया, प्रेम, शांति आदि हृदय की सात्विक वृत्तियों का जागरण आवश्यक होता है। क्योंकि इन सात्विक वृत्तियों से सहिष्णुता उत्पन्न होती है, और सहिष्णुता से समाज की उन्नतावस्था बनती है।
हमारा मेधा प्राप्ति सतत संघर्ष
युग युगों से भारत अपनी सहिष्णुता के लिए प्रसिद्घ रहा है। हमने बुद्घि की ऐसी वृद्घि की कामना ईश्वर से नही की जो केवल भौतिक उन्नति पर आधारित हो, अपितु हम सात्विक बुद्घि के उपासक बने और मेधा प्राप्ति के लिए सदा प्रयत्नशील रहे। इसलिए हमारे प्राचीन भारतीय समाज में सहिष्णुता की भावना लोगों में कूट-कूट कर भरी थी। हमारे इतिहास के वर्तमान स्वरूप में भारत की इस मेधा आंदोलन की संघर्ष क्षमता और सहिष्णुता की भावना की घोर उपेक्षा की गयी है। हमारे इतिहास ने पाश्चात्य जगत की ”बुद्घि की वृद्घि करने की प्रतियोगिता” को तो महिमामण्डित किया, परंतु सात्विक मेधा प्राप्ति के भारतीय सतत संघर्ष की उपलब्धियों की ओर ध्यान नही दिया है। इसीलिए महर्षि मनु, पतंजलि, कणाद, कपिल, गौतम, जैमिनी इत्यादि महापुरूष और उनका चिंतन इतिहास के विवेच्य विषयों की सूची से हटा दिये गये और यहां हृदयहीन बुद्घि की वृद्घि करने की प्रतियोगिता के कुछ कथित पश्चिमी विचारकों को हम पर थोप दिया गया। स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि ”केवल बुद्घि की वृद्घि होने से मनुष्य बहुधा हृदय शून्य हो जाता है। दया, प्रेम, शांति आदि हृदय के सात्विक गुण हैं, जो बुद्घि के प्रखर तेज से झुलस जाते हैं।”
हमारे प्राचीन ऋषियों ने मानवता को विकसित करने के लिए मानव को विश्व मानस का धनी बनाया। इसलिए संपूर्ण वैदिक संस्कृति वैश्विक शांति की प्रचारिका रही और विश्व लंबे समय तक शांतिमय रहा। गांधीजी ने इस वैदिक संस्कृति की अभिव्यक्ति अपनी आत्मकथा में इन शब्दों में दी है-”पशु स्वभावत: निरंकुश है, परंतु मनुष्यत्व इसमें है कि वह स्वेच्छा से अपने को अंकुश में रखे।”
स्वेच्छा से अपने को अंकुश में रखने के लिए महर्षि पतंजलि ने चित्त की वृत्तियों के निरोध को योग कहा और योग को मोक्ष की पगडंडी स्वीकार करा कर उस पर लोकमान्यता की मुहर लगवाई। तत्कालीन विश्व समाज में महर्षि पतंजलि की यह योग पद्घति मनुष्य को मनुष्यत्व का पाठ पढ़ाकर उसे विश्व मानस का धनी बनाने में सफल रही। इस सात्विक बुद्घि निर्माण की संघर्ष गाथा ने विश्वशांति की स्थापना तो की ही साथ ही व्यक्ति की निजी स्वतंत्रता को भी बचाये और बनाये रखने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। क्योंकि हमारे भीतर स्वाभाविक रूप से मानवीय संवेदनाओं को समझने वाला एक महान गुण सहिष्णुता का विकसित हुआ और हमने विश्व को अपनी ओर आकर्षित करने में सफलता प्राप्त की। इस सात्विक बुद्घि आंदोलन अथवा मेधा निर्माण के सतत संघर्ष को हमारी इतिहास पुस्तकों से हटा दिया गया।
असहिष्णुता के पुरोधाओं का गुणगान
इतिहास को काम सौंपा गया ”असहिष्णुता” के पुरोधाओं के गुणगान का। यह भारतीय इतिहास का दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि यहां जिन्हेांने अपनी असहिष्णुता के माध्यम से सहिष्णुता के उच्च मानवीय गुण का संहार किया, उन्हें तो महिमामंडित किया गया और जिन्हेांने मानवता के उच्च मानवीय गुणों की रक्षार्थ अपने प्राणोत्सर्ग भी कर दिये उन्हें, उपेक्षा और तिरस्कार झेलना पड़ा। वैदिक संस्कृति कहती थी कि-”समानो अध्वा प्रवता मनुष्यो”-अर्थात संसार में विचरने वाले सब प्राणियों को समान अधिकार हैं और विदेशी आक्रांताओं का संप्रदाय (इस्लाम) कहता था कि काफिरों को कत्ल करो और उनके बीवी, बच्चों, धनमाल इत्यादि पर कब्जा करो। क्योंकि खुदा ने तुम्हें इस धरती पर इसी काम के लिए भेजा है।
सात्विकता और तामसिकता का संघर्ष
इस्लाम की इस मान्यता से भारत की युगों पुरानी मेधा निर्माण की संघर्ष गाथा बाधित होने लगी। सात्विकता और तामसिकता में खुला युद्घ होने लगा। इसलिए इस्लाम की तलवार के विरूद्घ राजनीतिक स्तर पर ही लोहा नही लिया गया अपितु सामाजिक स्तर पर भी संघर्ष किया गया।
‘योगवाशिष्ठ’ में कहा गया है कि सर्वा एव हि ते भूत जातयो रामबांधव। अत्यन्ता संयुता एतास्तव राम न काश्चन।।
अर्थात हे राम, संसार के सभी प्राणी तेरे बंधु हैं, क्योंकि ऐसा कोई प्राणी नही है, जो तुझसे बिलकुल संबंध न रखता हो।”
इसी भावना को हमारे संविधान में भारत की ”सामासिक संस्कृति” के नाम से अभिहित किया गया है।
यदि निष्पक्षता से इस बात की समीक्षा की जाए कि भारत अपनी प्राचीन सामासिक संस्कृति को बीते 67 वर्षों में स्थापित क्यों नही कर पाया तो उसका उत्तर यही मिलता है कि यहां सामासिक संस्कृति का अर्थ ही अनर्थ कर दिया गया है। हमें समझा दिया गया है कि दूसरों की असहिष्णुता का उपचार न कर उनकी असहिष्णुता के सामने अपनी सहिष्णुता का समर्पण कराये रखना ही सामासिक संस्कृति है। इसलिए इतिहास के रिसते घावों को भी बिना भरे ही छोड़ दिया गया है। आज कितने लोग हैं जो भारतीय इतिहास के पुनर्लेखन को उचित मानते हैं?
वो अनाम हिन्दू बलिदानी
अब आइये, इतिहास के झरोखों से कुछ देखने का प्रयास करें कि हमारी मेधा निर्माण की सात्विक संघर्ष गाथा भी किस प्रकार पददलित हुई और उनकी विनाशकारी असहिष्णुता की लोकविध्वंसक दानवता को भी किस प्रकार महिमामंडित किया गया? हमारे स्वतंत्रता सेनानियों को किस प्रकार की पीड़ान्तक यातनाएं दी गयीं और किस प्रकार उन्होंने उन मर्मान्तक पीड़ाओं को सहन करके स्वधर्म और स्वसंस्कृति की रक्षा की। ऐसे कितने ही बलिदानियों के विषय में पूर्व में हम इस लेखमाला में प्रकाश डाल चुके हैं। आज हम विचार करेंगे उन अनाम हिंदू बलिदानियों के बलिदान का जिन्होंने महारानी संयोगिता को पाने की चाह रखने वाले कुतुबुद्दीन ऐबक के आदेश पर अपने प्राणों का उत्सर्ग तो किया परंतु स्वधर्म का परित्याग नही किया। साथ ही महारानी संयोगिता के उस उत्सर्ग को भी नमन करेंगे जिसे उसने केवल इसलिए किया कि भारत की सामासिक संस्कृति के विध्वंसक उसकी अस्मिता को न लूट सकें। पाठक स्वयं अनुमान लगायें कि हमारे इन वीर योद्घाओं ने और वीरांगना संयोगिता ने भारत की सहिष्णुता के महान मूल्य को विदेशियों की असहिष्णुतापूर्ण नीतियों के सामने न झुकाकर तथा भारत की मेधा निर्माण की सतत संघर्ष गाथा को निरंतर जारी रखने के लिए कितना बड़ा काम किया? भारत की सहिष्णुता उनकी असहिष्णुता का निरंतर प्रतिरोध कर रही थी इसके लिए प्राण जायें तो भले ही चले जायें-यह हमारा पराक्रमी जातीय गुण था। जिसे हमें बार-बार कायर कह कहकर मिटाने का प्रयास किया गया है।
अब आइए उस प्रसंग पर जो हमारे इस कथन की पुष्टि करने में सक्षम और समर्थ है।
बलिदानों का मौन साक्षी लालकिला
आज का लालकिला भारत के इन अनाम शूरवीरों और वीरांगना संयोगिता के उत्सर्ग की कहानी की मौन साक्षी दे रहा है। जी हां, यही लालकिला था-जिसमें महारानी संयोगिता और उसकी ननद तथा चित्तौड़ के महाराणा समरसिंह की रानी पृथा ने जौहर रचाकर अपना प्राणोत्सर्ग किया था। यद्यपि इस किले को शाहजहां द्वारा निर्मित दिखाया जाता है, लेकिन शाहजहां से सदियों पूर्व निर्मित कई इतिहास वृतांतों तथा ‘वंशचरितावली’ जैसे कई ग्रंथों से अब यह पूर्णत: सिद्घ हो चुका है, कि दिल्ली का लालकिला ही वह स्थान है जहां से पृथ्वीराज चौहान ने भी शासन किया था। चौहान की बेटी बेला के लिए ही यह भी प्रसिद्घ है कि वह कुतुबमीनार पर चढ़कर गंगा के दर्शन करके ही भोजन किया करती थी। अत: इसी लालकिले में महारानी संयोगिता और उनकी ननद पृथा को अपने-अपने पतियों के वीरगति को प्राप्त होने की सूचना मिली थी। लालकिला उस समय लालकोट के नाम से प्रसिद्घ था। पूरे दुर्ग में अपने महाराज के वीरगति प्राप्त हो जाने के कारण सन्नाटा छाया हुआ था। साथ ही यह भी भय था कि अब कभी भी विदेशी आक्रांता किले में प्रवेश कर सकते हैं और उसके पश्चात यहां ऐसा दानवीय कृत्य होना संभावित था कि जिसकी कल्पना से ही रोंगटे खड़े हो जाने थे-अर्थात भारत की महारानी संयोगिता और उनकी ननद सहित हजारों भारतीय वीरों, सेनापतियों, सेनानायकों की पत्नियों व बहू बेटियों के शीलहरण का परंपरागत दानवी खेल।
संयोगिता और पृथा का साहसिक निर्णय
इस खेल की परिकल्पना से चाहे जिसे पीड़ा होती हो, परंतु हमारी बहन बेटियों ने भी सौगंध ही उठा ली थी कि जीते जी वो ऐसा नही होने देंगी। इसी परंपरा को आगे बढ़ाने का निर्णय आज संयोगिता और पृथा भी ले चुकी थीं। इसलिए उन्होंने जौहर के लिए तैयारियां करानी आरंभ कर दीं। विशाल चिता का निर्माण दिल्ली के इस लालकिले में होने लगा। उधर कुतुबुद्दीन ऐबक जो कि मौहम्मद गोरी का सेनापति था दिल्ली के लालकिले को ध्वस्त कर उसमें छिपी महारानी संयोगिता सहित हजारों हिंदू महिलाओं को लेने का सपना संजोकर किले की ओर चल दिया। किले के बाहर आकर उसने घेरा डाल दिया। किले के चारों ओर आज भी एक गहरी खाई है, इस खाई में से उस समय यमुना की धारा का प्रवाह होता था। गहरी खाई में पानी होने के कारण किले की दीवार को लांघना या तोडऩा शत्रु के लिए असंभव कार्य होता था। कुतुबुद्दीन ने भी जब खाई में जलभराव का समुद्र देखा तो वह बड़ा हताश हुआ। परंतु तुरंत ही उसके भीतर के राक्षस ने उसे एक उपाय सुझा दिया।
हिंदू वीरों से भर दी खाई
कुतुबुद्दीन ने अपने सैनिकों को आदेशित किया कि जितने भर भी हिंदू नागरिक गुलाम के रूप में गिरफ्तार किये गये हैं, उन्हें सभी को खाई में डाल कर इसका भराव कर दो और उन जिंदा गुलामों की लाशों के ऊपर चढ़कर किले की दीवार लांघने का प्रयास किया जाए। ये गुलाम वही हिंदू थे में जिन्होंने अपना धर्म और अपनी संस्कृति ना छोड़कर आजीवन गुलाम रहकर असीम यातनाओं का जीवन जीना भी स्वीकार कर लिया था। आज उन्हें ही मृत्यु अपने सामने दीख रही थी। उन्हें खाई में डालकर खाई का भराव मिट्टी भराव की भांति करने के लिए तुर्क सैनिक उन्हें उठा-उठाकर खाई में फेंकने लगे। परंतु किसी भी हिंदू वीर ने खाई में फेंककर अपने प्राणों की रक्षार्थ स्वधर्म के परित्याग करने की बात नही कही। हैं ना रोमांचकारी क्षण। देशभक्ति का ऐसा अदभुत आदर्श हिंदुओं के अतिरिक्त भला और किस जाति में मिलता है?
खाई भरने लगी और हमारे वीर हिंदू ”मां भारती” की मिट्टी का तिलक लगाकर फटाफट अपना बलिदान देने लगे।
महारानी संयोगिता ने किया जौहर
महारानी संयोगिता ने किले में प्रवेश के लिए बने पुल को तुड़वा दिया था, जब महारानी के आदेश से पुल तोड़ा जा रहा था, तब किसे पता थी कि नया पुल जो बनेगा उसके लिए कितने हिंदू वीरों को अनाम शहीद के रूप में शहादत का जाम पीना पड़ जाएगा? यद्यपि इन वीरों को पता था कि तुम्हारी लाशों पर से गुजर कर रानी और उनकी हजारों सहेलियों का शीलभंग करने के लिए तुर्क भीतर जाएंगे, इसलिए उनके शीलभंग को बचाने के लिए वह अपना धर्मांतरण कर लें, लेकिन उन्होंने ऐसा नही किया। क्योंकि उन्हें ये भी पता था कि महारानी संयोगिता और उनकी सहेलियां और यहां उपस्थित अन्य हिंदू वीरांगनाएं अपने लिए जौहर का रास्ता चुन लेंगी। इसलिए किले के भीतर भी जाकर शत्रु को केवल कुछ मुट्ठी राख ही मिलेगी। इसलिए वे सारे लोग निश्चिंत भाव से अपना-अपना बलिदान देते गये। वह उस नारकीय जीवन को जीने की अपेक्षा बलिदानी रास्ते को अपनाना अपना सौभाग्य मान रहे थे, जिसमें उन्हें अपने शेष जीवन में असीम वेदना और कष्टों का सामना करना था।
महारानी संयोगिता ने अपना रास्ता चुन लिया और इससे पहले कि शत्रु किसी भी प्रकार से भीतर घुस पाता महारानी संयोगिता रानी पृथा और उनकी हजारों वीरांगना सहेलियों ने जलती चिता में कूदकर भारत के परम शौर्य की कहानी को पूर्ण कर दिया।
जब जिंदा लाशों पर चले हाथी
हमारे कितने ही अनाम शहीदों ने लालकिले के बाहर की खाई को अपने जिंदा शरीरों से भर दिया। उनकी जिंदा लाशों पर से हाथियों को निकालकर किले के दरवाजों को तोडऩे का प्रयास हाथियों से कराया गया। परंतु किले के दरवाजों में भारी कीलें लगी होने के कारण हाथी भी लहूलुहान होकर किले के फाटकों में टक्कर मारने से पीछे हटने लगे। तब कुछ तुर्क सैनिकों ने किले की दीवार पर चढऩे का प्रयास किया, जिन्हें दूसरी ओर बैठे हमारे वीर हिंदू सैनिकों ने मार गिराया। अंत में किले के फाटकों में लगी, कीलों के सामने जयचंद के पुत्र धीरचंद को खड़ा किया गया और धीरचंद्र के शरीर में हाथियों ने टक्कर मारी। प्रबल प्रहार के कारण धीरचंद तो फाटकों में चिपक गया, पर किले का फाटक भी टूट गया।
हाथ मलता रह गया कुतुबुद्दीन
…पर भीतर तो कुछ भी नही था महारानी संयोगिता रानी पृथा और हजारों हिंदू वीरांगनाएं अपने अपने पतियों के पास स्वर्ग में जाकर शत्रु से अपने बचने की शौर्यपूर्ण कथायें बता रही थीं और शत्रु उनकी चिताओं पर खड़ा हाथ मल रहा था।
ये है हमारी हिंदू शौर्य गाथा का वह स्वर्णिम पृष्ठ जो हमारे इतिहास से पूर्णत: विलुप्त है, और ये है हमारे लालकिले का वह स्वर्णिम अध्याय जिसके पन्नों को आज तक पलटने का प्रयास ही नही किया गया। निश्चित रूप से यह लालकिला हमारी हिंदू स्वाधीनता की लड़ाई का एक स्मारक है। इसके नाम के साथ जुड़े इन हजारों बलिदानियों और हजारों वीरांगनाओं को आज हर देशभक्त भारतीय अपनी मौन लेकिन भावपूर्ण श्रद्घांजलि अर्पित करता है।

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