त्याग से जागै प्रेम रस, प्रेम से जागै त्याग
जीवन के दो चरण हैं,
एक धर्म एक ज्ञान।
जो इनका पालन करे,
एक दिन बने महान।। 597 ।।

जग में धन तो तीन हैं,
ज्ञान, समृद्घि, भाव।
जो इनसे भरपूर है,
उनका पड़े प्रभाव ।। 598 ।।

नोट: शरीर को साधनों की समृद्घि चाहिए, जबकि आत्मा को ज्ञान और भावों की समृद्घि चाहिए।

धन, पद, मद संसार में,
ज्यों बादल की छांव।
इनसे सदा निरपेक्ष रह,
लगे किनारे नाव ।। 599 ।।

धर्म का धागा प्रेम है,
सदा रहो भरपूर।
हर प्राणी में चमकता,
परमपिता का नूर ।। 600 ।।

ध्यान रहे, प्रेम धर्म की शक्ति है। इससे सदा भरपूर रहो, अर्थात आपके हृदय में प्राणी मात्र के प्रति मित्रता का सदभाव होना चाहिए। सारी सृष्टि को एक प्रेम नाम का तत्व ही तो पिरोये हुए है। यदि आपका हृदय प्रेम नाम के तत्व से ओतप्रोत है तो इसका अर्थ है कि आप उस परमपिता परमात्मा से जुड़े हुए हैं, ऊर्जान्वित हो रहे हैं जिसे वेदों में प्रेमनिधेय कहा गया है।

त्याग से जागै प्रेम रस,
प्रेम से जागै त्याग।
लोभ और स्वारथ से जगे,
महाक्रोध की आग ।। 601।।

हालात रहे अनुकूल तो,
पौधा पेड़ बन जाए।
मरू गिरि पै पौधा बढ़ै,
सबै अचम्भा आय ।। 602।।
भाव यह है कि जो व्यक्ति अभाव, गरीबी कलह-क्लेश और निकृष्ट सोच वाले दुष्ट व्यक्तियों के मध्य रहकर भी अपने उत्साह और मुस्कान को कभी खोते नही, और अपने लक्ष्य की तरफ निरंतर गतिशील रहते हैं वे एक दिन अपनी मंजिल पर अवश्य पहुंचते हैं। साधन संपन्न होने के बावजूद यदि कोई तरक्की करता है तो उसे देखकर इतना आश्चर्य नही होता जितना कि विषम परिस्थितियों से संघर्ष करता हुआ जो चर्मोत्कर्ष पर पहुंचता है उसे देखकर सभी आश्चर्यचकित हो जाते हैं।
क्रमश:

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