पेशावर में गुनाहों का गुनाह!

पेशावर में तालिबान ने जो किया है, वह जुर्मों का जुर्म है। गुनाहों का गुनाह है। यह इतना घृणित कर्म है कि जिन लोगों की तालिबान के प्रति गुपचुप सहानुभूति है, वे भी तालिबान के विरुद्ध हो जाएंगे। जिस स्कूल में डेढ़ सौ बच्चों और अध्यापकों के खून की होली तालिबान ने खेली है, वह स्कूल फौजी जरुर है लेकिन उसमें सिर्फ फौजियों के बच्चे ही नहीं पढ़ते हैं। उसमें गैर-फौजी पठानों के बच्चे भी पढ़ते हैं। तालिबान दावा करते हैं कि वे बहादुर पठान हैं। यह कैसी बहादुरी है और कैसी पठानियत है? यदि आतंकवादियों में बहादुरी होती तो वे हथियारबंद फौजियों से आमने-सामने की लड़ाई लड़ते। वे इन बेकसूर, मासूम और कोमल बच्चों के साथ यह राक्षसी कृत्य क्यों करते? जहां तक पाकिस्तानी फौज का सवाल है, यह ठीक है कि उसमें पंजाबियों का वर्चस्व है और उन्हें दंडित करने का ही इरादा तालिबान का रहा होगा लेकिन जो लोग मारे गए हैं, वे लोग कौन हैं? किनके बच्चे हैं, वे? और बच्चे तो बच्चे होते हैं, वे हमारे हों या तुम्हारे हों। तालिबान का यह तर्क बिल्कुल भी गले नहीं उतरता कि पाकिस्तानी फौज ने उत्तरी वजीरिस्तान के अभियान में कई बच्चों को मारा है। हमने उसका ही बदला पेशावर में लिया है। पहली बात तो यह है कि फौज ने अपने आतंक-विरोधी अभियान में काफी एहतियात बरता है। फिर भी यदि कोई भूल-चूक उससे हो गई हो तो क्या ऐसा वहशियाना बर्ताव करना उन लोगों को शोभा देता है, जो अपने आप को जिहादी कहते हैं? जिहाद दो तरह का होता है। जिहादे-अकबर और जिहादे-असगर! दोनों जिहाद बेकसूर की हत्या को गुनाह मानते हैं। तालिबान के इस गुनाह ने सारी दुनिया का दिल दहला दिया है।

मुझे खुशी है कि भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मियां नवाज शरीफ को फोन किया और मदद की पेशकश की। भारत के सारे स्कूलों में करोड़ों बच्चों ने पाकिस्तानी बच्चों की याद में दो मिनिट का मौन रखा। इस शोक की घड़ी में हर भारतीय नागरिक पाकिस्तान के दुख में दुखी है। कश्मीर में जब बाढ़ का तांडव हुआ था, तब भी मोदी ने मदद की गुहार लगाई थी। इसका मतलब यह है कि भारत और पाकिस्तान के रिश्ते फिर पटरी पर आकर ही रहेंगे। विदेश-सचिवों की जो वार्ता टूटी थी, उससे कहीं ज्यादा जोड़ने वाली बातें दोनों मुल्कों के बीच हो रही हैं।

इस घटना से पाकिस्तानी फौज को एक सबक जरुर सीखना चाहिए। आप जब दहशतगर्दी को पड़ौसी देशों के खिलाफ इस्तेमाल करते हैं तो आप यह भूल जाते हैं कि दहशतगर्द किसी के भी सगे नहीं होते। जो हाथ उन्हें खिलाता है, वे उसी हाथ को काट खाते हैं। अब हमारे और तुम्हारे दहशतगर्द का भेद खत्म होना चाहिए। दक्षेस (सार्क) के सभी देशों को एकजुट होकर आतंकवाद के खिलाफ संयुक्त मोर्चा बनाना चाहिए। तालिबान भी यह समझ लें कि उनके कुकृत्यों की वजह से आज इस्लाम जितना बदनाम हो रहा है, पिछले 1400 साल में कभी नहीं हुआ। वे अपने लक्ष्यों के लिए लड़ें और जमकर लड़ें लेकिन वह लड़ाई हिंसा और आतंक के बिना क्यों नहीं हो सकती?

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