लोकतंत्र के लूटपाट से मुक्ति और निजात

उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले में एक मंत्री ने जिले के सबसे बड़े मेडिकल अफसर को इसलिए बंधक बना लिया क्योंकि अफसर ने उस मंत्री का गैरकानूनी हुक्म मानने से इनकार कर दिया था। सूचना क्रान्ति के निजाम के चलते मंत्री की कारस्तानी दुनिया के सामने आयी और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने तुरंत कार्रवाई की और मंत्री को पद छोडना पड़ा। आमतौर पर माना जा रहा है कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने जिस तपाक से मंत्री को पद से हटाया, वह अन्य मंत्रियों के लिया सबक रहेगा। लेकिन सवाल यह है कि क्या इस मंत्री की कारगुजारी मीडिया ने उजागर न किया होता तब भी उसको हटाया जाता? सरकारों में मुख्यमंत्रियों को साफ़ सुथरा प्रशासन रखने के लिए अपने मंत्रियों के काम काज पर नजऱ रखने के लिए मीडिया के अलावा भी कुछ तरीकों की ईजाद करना चाहिए जिस से बात के मीडिया में पंहुचने के पहले ही उन पर एक्शन हो जाए। इस से सरकारों की कार्यक्षमता के बारे में अच्छा माहौल बनेगा। हटाये गए मंत्री जी के बारे में जो जानकारी मिली है उसके आधार पर बहुत आराम से कहा जा सकता है कि वे ऐसे धर्मात्मा नहीं थे जिसके लिए आंसू बहाए जाएँ। उनका अपना इतिहास ऐसा है कि कोई भी सभ्य समाज उनको अपना साथी नहीं मानना चाहेगा। तो प्रश्न यह है कि उन महोदय को मंत्री बनाया ही क्यों गया। बताते हैं कि अपने इलाके में उनकी ऐसी दहशत है कि उनके खिलाफ कोई भी चुनाव नहीं जीत सकता। जिस पार्टी में भी जाते हैं उसे जिता देते हैं। यानी वे विधायिका की ताकत मज़बूत करते हैं इसलिए उन्हें कार्यपालिका में मनमानी करने की अनुमति दी जाती है। ऐसा लगता है कि कार्यपालिका और विधायिका के रोल आपस में इतने घुल मिल गए हैं कि देश के राजनीतिक फैसलों को लागू करने की ताकत हासिल कर लेने वाले विधायिका के प्रतिनिधि सरकारी फैसलों में मनमानी करने की खुली छूट पा जाते हैं और इसलिए अपने आर्थिक लाभ के लिए देश की सम्पदा को अपना समझने लगते हैं। यह गलत है। इसका हर स्तर पर प्रतिकार किया जाना चाहिए। हमारे लोकतंत्र के तीन स्तंभ बताए गए हैं। न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका। न्यायपालिका तो सर्वोच्च स्तर पर अपना काम बहुत ही खूबसूरती से कर रही है लेकिन कार्यपालिका और विधायिका अपने फज़ऱ् को सही तरीके से नहीं कर पा रही हैं। हमने पिछले कई वर्षों से देखा है कि संसद का काम इसलिए नहीं हो पाता कि विपक्षी पार्टियां सरकार यानी कार्यपालिका के कुछ फैसलों से खुश नहीं रहती। कार्यपालिका के गलत काम के लिए वह विधायिका को अपना काम नहीं करने देती। इसलिए इस सारी मुसीबात को खत्म करने का एक बाहुत सही तरीका यह है कि विधायिका और कार्यपालिका का काम अलग अलग लोग करें। यानी जो लोग विधायिका में हैं वे कार्यपालिका से अलग रहें। वे कार्यपालिका के काम की निगरानी रखें उन पर नजऱ रखें और संसद की सर्वोच्चता को स्थापित करने में योगदान दें। अभी यह हो रहा है कि जो लोग संसद के सदस्य है, संसद की सर्वोच्चता के संरक्षक हैं वे ही सरकार में शामिल हो जाते हैं और कार्यपालिका भी बन जाते हैं। गौर करने की बात यह है कि पिछले 18 साल में जब भी संसद की कार्यवाही को हल्ला गुल्ला करके रोका गया है वह विरोध कार्यपालिका के किसी फैसले के बारे में था। संसद का जो विधायिका के रूप में काम करने का मुख्य काम है उसकी वजह से संसद में हल्ला गुल्ला कभी नहीं हुआ। हल्ला गुल्ला इसलिए हुआ कि संसद के सदस्यों का जो अतिरिक्त काम है, कार्यपालिका वाला, उसकी वजह से संसद को काम करने का मौका नहीं मिला। इसलिए अब इस बात पर गंभीरता से विचार करने की ज़रूरत है कि कार्यपालिका और विधायिका का काम अलग अलग लोगों को दिया जाए। यानी ऐसे नियम बना दिए जाएँ जिसके बाद कोई भी संसद सदस्य या कोई भी विधायक मंत्री न बन सके। संसद या विधानमंडलों के सदस्य के रूप में नेता लोग अपना काम करें, यानी कानून बनायें और उन कानून को लागू करने वाली कार्यपालिका के काम की निगरानी करें। मंत्री ऐसे लोग बने जो संसद या विधानमंडलों के सदस्य न हों। यहाँ यह गौर करने की बात है कि नौकरशाही को काबू में रखना भी ज़रूरी है वर्ना वे तो ब्रिटिश नजराना संस्कृति के वारिस हैं, वे तो सब कुछ लूटकर रख देगें। अगर संसद या विधान सभा का सदस्य बनकर केवल क़ानून बनाने का काम मिलने की बात होगी तो इन सदनों में बाहुबली बिलकुल नहीं आयेगें। उसके दो कारण हैं। एक तो उन्हें मालूम है कि कानून बनाने के लिए संविधान और कानून और राजनीति शास्त्र का ज्ञान होना चाहिए। दूसरी बात यह है कि जब उन्हें मालूम हो जाएगा कि संसद के सदस्य बनकर कार्यपालिका पर उनका डाइरेक्ट नियंत्रण नहीं रहेगा तो उनकी रूचि खत्म हो जायेगी। क्योंकि रिश्वत की मलाई तो कार्यपालिका पर कंट्रोल करने से ही मिलती है। इस तरह हम देखते हैं कि अगर विधायिका को कार्यपालिका से अलग कर दिया जाए तो देश का बहुत भला हो जाएगा। यह कोई अजूबा आइडिया नहीं है। अमरीका में ऐसी ही व्यवस्था है। अपने संसदीय लोकतंत्र को जारी रखते हुए यह किया जा सकता है कि बहुमत दल का नेता मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री बन जाए और वह संसद या विधानमंडलों के बाहर से अपना राजनीतिक मंत्रिमंडल बनाये। एक शंका उठ सकती है कि वही बाहुबली और भ्रष्ट नेता चुनाव नहीं लड़ेगें और मंत्री बनने के चक्कर में पड़ जायेगें और वही काम शुरू कर देगें जो अभी करते हैं। लेकिन यह शंका निर्मूल है। क्योंकि कोई मनमोहन सिंह, या नीतीश कुमार या अखिलेश यादव या नवीन पटनायक किसी बदमाश को अपने मंत्रिमंडल में नहीं लेगा। संसद का काम यह रहे कि मंत्रिमंडल के काम की निगरानी रखे। यह मंत्रिमंडल राजनीतिक फैसले ले और मौजूदा नौकरशाही को ईमानदारी से काम करने के लिए मजबूर करे। यह संभव है और इसके लिए कोशिश की जानी चाहिए। कार्यपालिका और नौकरशाही पर अभी भी संसद की स्टैंडिंग कमेटी कंट्रोल रखती है और वह हमारी लोक शाही का एक बहुत ही मज़बूत पक्ष है। स्टैंडिंग कमेटी की मजबूती का एक कारण यह भी है कि उसमें कोई भी मंत्री सदस्य के रूप में शामिल नहीं हो सकता। स्टैंडिंग कमेटी मंत्रिमंडल के काम पर निगरानी भरी नजऱ रखती है। आज जो काम स्टैंडिंग कमेटी कर रही है वही काम पूरी संसद का हो जाए तो चुनाव सुधार का बहुत पुराना एजेंडा भी लागू हो जाएगा और अमरीका की तरह विधायिका की सर्वोच्चता भी स्थापित हो जायेगी। भारत में भ्रष्टाचार के समकालीन इतिहास पर नजऱ डालें तो साफ़ समझ में आ जाता है कि इस काम में राजनीतिक बिरादरी नंबर एक पर है। राजनेता, एमपी या एमएलए का चुनाव जीतता है और केन्द्र या राज्य में मंत्री बन जाता है। मंत्री बनते ही कार्यपालिका के राजनीतिक फैसलों का मालिक बन बैठता है और उन्हीं फैसलों की कीमत के रूप में घूस स्वीकार करना शुरू कर देता है। जब राजनेता भ्रष्ट हो जाता है तो उसके मातहत काम करने वाली नौकरशाही को भ्रष्टाचार करने का लाइसेंस मिल जाता है और वह पूरी मेहनत और बेईमानी के साथ घूस वसूलने में जुट जाता है।

फिर तो नीचे तक भ्रष्टाचार का राज कायम हो जाता है। भ्रष्टाचार के तत्व निरूपण में जाने की ज़रूरत इसलिए नहीं है कि भ्रष्टाचार हमारे सामाजिक राजनीतिक जीवन का इतना महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुका है कि उसके बारे में किसी भी भारतीय को कुछ बताना बिकुल बेकार की कवायद होगी। इस देश में जो भी जिंदा इंसान अहै वह भ्रष्टाचार की चारों तरफ की मौजूदगी को अच्छी तरह जानता है।

उत्तर प्रदेश में भ्रष्टाचार को अंदर से देख और झेल रहे एक अफसर मित्र से चर्चा के दौरान भ्रष्टाचार को खत्म करने के कुछ दिलचस्प तर्क सामने आये। उत्तर प्रदेश की नौकरशाही में अफसरों का एक वर्ग ऐसा भी है जो भ्रष्टाचार के खिलाफ है लेकिन जल में रहकर मगर से वैर नहीं करता और नियम कानून की सीमाओं में रहकर अपना काम करता रहता है। उन्होंने भ्रष्टाचार को खत्म करने के कई गुर बताए लेकिन सिद्धांत के स्तर पर जो कुछ उन्होंने बताया, वह फील्ड में काम करने वाले उस योद्धा के तर्क हैं जो भ्रष्टाचार की मार का सोते जागते मुकाबला करता रहता है । जब तक एक कलक्टर या एस डी एम जाग रहा होता है उसे को न कोई नेता या मंत्री या उसका बड़ा अफसर भ्रष्टाचार के तहत कोई न कोई काम करने की सिफारिश करने को कहता रहता है। उन्होंने बताया कि जिलों में सबसे ज्यादा भ्रष्ट राजनीतिक नेता होते हैं। जो लोग मंत्री हो जाते हैं वे तो हर काम को अपनी मर्जी से करवाने को अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते हैं। उसके बाद मंत्री जी के चमचों का नंबर आता है। यह चमचा वाली संस्था तो बनी ही भ्रष्टाचार का निजाम कायम रखने के लिए है। उसके बाद वे नेता आते हैं जो विधायक या सांसद हो चुके होते हैं लेकन मंत्री नहीं बन पाते। यह सरकारी पक्ष के ही होते हैं। सरकारी पक्ष के नेताओं के बाद विपक्ष की पार्टियों के विधायकों और सांसदों का नंबर आता है जिनके चमचे भी सक्रिय रहते हैं। इस वर्ग के नेता भी कम ताक़त्वर नहीं होते और उनका भी खर्चा पानी घूस की गिजा पर ही चलता है। उसके बाद उन नेताओं का नंबर आता है जो भूतपूर्व हो चुके होते हैं। भूतपूर्व के बाद वे नेता आते हैं जिनको अभी चुनावी सफलता नहीं मिली है या कि मिलने वाली है।

यह देखा गया है कि सरकारी फैसलों को घूस की चाभी से अपने पक्ष में करने वाले लोगों में सबसे आगे वही लोग होते हैं जो राजनीति के क्षेत्र से आते हैं। अगर चुनाव जीतने वालों को स्पष्ट रूप से विधायिका का काम दे दिया जाए और उनको कार्यपालिका में शामिल होने से रोक दिया जाए यानी उन्हें मंत्री बनने के लिए अयोग्य करार कर दिया जाए और उन्हें मंत्रियों और अफसरों के काम पर निगरानी रखने का काम सौंप दिया जाए तो देश में राजनीतिक सुधार का जो माहौल बनेगा वह बेईमानी और भ्रष्टाचार के निजाम को खत्म करने की दिशा में महत्वपूर्ण होगा।

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