दंगों के बारे में सोचा जाए कि ये होते क्यों हैं

1948 के बाद भारत में पहला सांप्रदायिक दंगा 1961 में मध्यप्रदेश के जबलपुर शहर में हुआ ! उसके बाद से अब तक सांप्रदायिक दंगो की झड़ी सी लग गयी ! बात चाहे 1969 में गुजरात के दंगो की हो , 1984 में सिख विरोधी हिंसा की हो, 1987 में मेरठ के दंगे हो जो लगभग दो महीने तक चला था और कई लोगो ने अपनी जान गंवाई थी, 1989 में हुए भागलपुर – दंगे की बात हो, 1992 – 93 में बाबरी काण्ड के बाद मुंबई में भड़की हिंसा की हो, 2002 में गुजरात – दंगो की हो, 2008 में कंधमाल की हिंसा की हो या फिर अभी पिछले दिनों ही उत्तर प्रदेश के बरेली में फ़ैली सांप्रदायिक हिंसा की हो अथवा इस समय सांप्रदायिक हिंसा की आग में सुलगते हुए असम की हो जिसमे अब तक पिछले सात दिनों से जारी हिंसा में करीब दो लाख लोगों ने अपना घर छोड़ा दिया तथा इनमें से कइयो के घर जला दिए गए और ज्यादातर लोग सरकार द्वारा बनाए गए 125 राहत शिविरों में रहने को मजबूर हैं ! यह एक कटु सत्य है कि विभिन्न समुदायों के बीच शांति एवं सौहार्द स्थापित करने की राह में सांप्रदायिक दंगे एक बहुत बड़ा रोड़ा बन कर उभरते है और साथ ही मानवता पर ऐसा गहरा घाव छोड़ जाते है जिससे उबरने में मानव को कई – कई वर्ष तक लग जाते है ! ऐसे में समुदायों के बीच उत्पन्न तनावग्रस्त स्थिति में किसी भी देश की प्रगति संभव ही नहीं है ! साम्यवादी चिन्तक काल माक्र्स ने धर्म को अफीम की संज्ञा देते हुए कहा था कि धर्म लोगों में नसेड़ी की अफीक की तरह विद्यमान होता है, जो हर हाल में नशा नहीं त्यागना चाहता है, भले ही वह अन्दर से खोखला क्यों ना हो जाय ! समाज की इसी कमजोरी को राजनेताओ ने सत्ता की लोलुपता में सत्ता हथियाने हथियार बनाया , भले ही इसकी वेदी पर सैकड़ों मासूमों के खून का बह जाय! आज यह बात विचारणीय है कि दंगों का खात्मा कैसे किया जाए?

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